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स त्वा॑मद॒द्वृषा॒ मदः॒ सोमः॑ श्ये॒नाभृ॑तः सु॒तः। येना॑ वृ॒त्रं निर॒द्भ्यो ज॒घन्थ॑ वज्रि॒न्नोज॒सार्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa tvāmadad vṛṣā madaḥ somaḥ śyenābhṛtaḥ sutaḥ | yenā vṛtraṁ nir adbhyo jaghantha vajrinn ojasārcann anu svarājyam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। त्वा॒। अ॒म॒द॒त्। वृषा॑। मदः॑। सोमः॑। श्ये॒नऽआ॑भृतः। सु॒तः। येन॑। वृ॒त्रम्। निः। अ॒त्ऽभ्यः। ज॒घन्थ॑। व॒ज्रि॒न्। ओज॑सा। अर्च॑न्। अनु॑। स्व॒ऽराज्य॑म् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:80» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:29» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह सभाध्यक्ष आदि कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वज्रिन्) शस्त्र और अस्त्रों की विद्या को धारण करनेवाले और सभाध्यक्ष ! (येन) जिस न्याय वर्षाने और मद करनेवाले जो कि बाज पक्षी के समान धारण किया जावे, उस उत्पादन किये हुए पदार्थों के समूह से तू (ओजसा) पराक्रम से (स्वराज्यम्) अपने राज्य को (अन्वर्चन्) शिक्षानुकूल किये हुए जैसे सूर्य (अद्भ्यः) जलों से अलग कर (वृत्रम्) जल को स्वीकार अर्थात् पत्थर सा कठिन करते हुए मेघ को निरन्तर छिन्न-भिन्न करता है, वैसे प्रजा से अलग कर प्रजा सुख को स्वीकार करते हुए शत्रु को (निर्जघन्थ) छिन्न-भिन्न करते हो (सः) वह (वृषा) (मदः) (श्येनाभृतः) (सुतः) उक्त गुणवाला (सोमः) पदार्थों का समूह (त्वा) तुझको (अमदत्) आनन्दित करावे ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जिन पदार्थों और कामों से प्रजा प्रसन्न हो, उनसे प्रजा की उन्नति करें और शत्रुओं की निवृत्ति करके धर्मयुक्त राज्य की नित्य प्रशंसा करें ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे वज्रिन् ! येन वृष्णा मदेन श्येनाभृतेन सुतेन सोमेन त्वमोजसा स्वराज्यमन्वर्चन् यथा सूर्य्योऽद्भ्यः पृथक्कृत्य वृत्रं जलं स्वीकुर्वन्तं मेघं निर्जघान तथा प्रजाभ्यः पृथक्कृत्य प्रजासुखं स्वीकुर्वन्तं शत्रुं निर्जघन्थ, स वृषा मदः श्येनाभृतः सुतः सोमस्त्वामदत् ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (त्वा) त्वाम् (अमदत्) हर्षयेत् (वृषा) न्यायवर्षकः (मदः) आह्लादकारकः (सोमः) ऐश्वर्यप्रदः पदार्थसमूहः (श्येनाभृतः) यः श्येन इव विज्ञानादिगुणैः समन्ताद् भ्रियते सः (सुतः) संतापितः (येन) (वृत्रम्) जलं स्वीकुर्वन्तं प्रजासुखं स्वीकुर्वन्तं वा (निः) नितराम् (अद्भ्यः) जलेभ्यः प्रजाभ्यो वा (जघन्थ) हन्ति (वज्रिन्) शस्त्रास्त्रविद्याभिज्ञ (ओजसा) पराक्रमेण (अर्चन्) सत्कुर्वन् (अनु) आनुकूल्ये (स्वराज्यम्) स्वकीयं राज्यम् ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। पुरुषैर्यैः पदार्थैः कर्मभिश्च प्रजा प्रसन्ना स्यात्तैः समुन्नेया। शत्रून्निवार्य्य धर्मराज्यं नित्यं प्रशंसनीयम् ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी ज्या पदार्थ व कार्यांनी प्रजा प्रसन्न होईल त्या गोष्टींनी प्रजेला उन्नत करावे व शत्रूंचे निवारण करून धर्मयुक्त राज्याची नित्य प्रशंसा करावी. ॥ २ ॥